मानव जीवन सहज रूप से नहीं प्राप्त हुआ है। कितने भाग्य से यह पंचतत्व का शरीर हमें मिला है ,और इस शरीर से कुछ ऐसा करने का प्रयत्न अवश्य करना चाहिए जिससे कि माता- पिता का जीवन भी धन्य-धन्य हो और इहलोक और परलोक में भी यशगान हो।
मानव का जन्म जब इस धरा पर होता है तो यह भी सहज और सरलता से नहीं होता अपितु पूर्व के सद्गुणों के कारण ही होता है। जन्म होने बाद जब बच्चा आवश्यक क्रमिक गति से विकास करते हुए अपने युवापन में पहुंच जाता है तब माता-पिता उसके वैवाहिक जीवन का स्वप्न सँजोए हुए अपने भावी स्वप्न को मूर्त रूप देते हैं और युगल दाम्पत्य जीवन का श्री गणेश करते हैं।
पति -पत्नी के रूप में गृहस्त आश्रम में प्रवेश कर के आमोद-प्रमोद से आह्लादित एवं स्वर्ग के सुख के काल्पनिक कामना सहित पुरुष -स्त्री रागात्मक भाव से एक- दूजे में इतना निमग्न हो जाते हैं कि कुछ माह या कुछ वर्ष बीत जाने पर जाने -अनजाने सूनी बगिया में एक बीज का प्रस्फुरण हो जाता है।
जब कि इस बीज के भी प्रादुर्भाव का विधि-विधान से शास्त्रों ने नियम-संगत संस्कार वैवाहिक संस्कार के ही समतुल्य माना है।
यदि वैवाहिक जीवन में संयम के साथ रह कर और केवल सन्तानोत्तपत्ति की कामना से पति -पत्नी प्रसंग सुख के अश्व पर आरूढ़ होकर यात्रा करें तो आज भी अभिमन्युabhimanyu पैदा हो सकता है।
कलयुग में यह एक कल्पना मात्र लोगों को लगेगा परन्तु विधि पूर्वक यदि क्रिया सम्पन्न की जाय तो यह असम्भव सा लगने वाला कार्य सम्भव हो सकता है। यद्यपि इस हेतु जो नियम-धर्म हैं उसका कठिनता से पालन करना अति आवश्यक है ,क्यों कि इसके विधान की एक छोटी सी भूल अभिमन्यु जैसी संतान प्राप्त होने के सुख से वंचित कर देगा।
गर्भ धारण से पूर्व सामान्य नियम -----
1 -ऋतुमयी होने के दिन से सोलहवीं रात्रि तक ही संतान जनने योग्य समय होता है स्त्री के लिए।
2 -स्नान दिन से सोलहवीं रात्रि तक सम दिवस में पुत्र और विसम दिवस में प्रसंग से कन्या का जन्म होता है।
3 -जैसे सूर्यकांत मणि और सूर्य के संयोग से अगिनि उतपन्न होती है उसी प्रकार शुक्र और रज का जब संयोग होता है तो उसी समय रज एवं शुक्र के साथ जीव गर्भ में प्रवेश करता है।
4 -यदि रज की बात करें तो स्त्री में रज ,स्त्री के चार अंजुली के समतुल्य होता है और पुरूष के अंजुली से एक अंजुली शुक्र पुरुष में होता है।
5 -परुष और स्त्री के आहार-विहार ,सुख-दुःख अथवा शरीर की वृद्धि के कारण भी कभी -कभी स्त्री में रज अधिक तो कभी पुरुष में शुक्र अधिक हो जाता है। यदि प्रसंग में रज से शुक्र अधिक होगा तो पुत्र होगा ,लेकिन प्रसंग में यदि शुक्र से रज अधिक होगा तो कन्या होगी।
6 -पुरुष के शुक्र में वायु ,अगिनि ,जल ,पृथ्वी जैसे भूतों के रहते हुए भी 6 रसों वाले आहार से ही यह शुक्र उतपन्न होता है।
7 -यदि माता का गर्भाशय गर्म हो और पिता एवं माता का शुक्र तथा रज भी गर्म हो तो सबसे उत्तम संतान होती है।
8 -यदि शुक्र और रक्त रूपी बीज गर्भ में दो भाग में बँट जाते हैं तो एक भाग में रक्त अधिक होने से तथा दूसरे भाग में शुक्र अधिक होने से तो कन्या होती है और पुत्र भी साथ पैदा होगा अथार्त पुत्र और कन्या साथ में जुड़वा पैदा होंगें।
9 -यदि शुक्र की अधिकता वाला बीज (शुक्र एवं रज )जब दो समान भाग में हो जाता है तो दो जुड़वाँ पुत्र पैदा होंगे ,लेकिन जब रक्त की अधिकता वाला बीज जब दो भागों में बँट जाता है तो दो पुत्री अथार्त दो जुडवाँ कन्या पैदा होंगी
10 -यदि शुक्र और रज यानि की बीज जब गर्भ में समान भाग में हो जाता है तो संतान नपुंसक पैदा होती है।
पति -पत्नी के प्रसंग में सावधानी एवं नियम -----------
1 -भोजन करने के कम से कम चार घंटे बाद ही पति -पत्नी प्रसंग करें।
2 -यदि दोनों में से किसी को भी प्रसंग समय पेट में गैस या खाने -पीने से पेट भारी हो तो प्रसंग न करें।
3 -पति -पत्नी में से किसी को यदि सर्दी -जुकाम -बुखार या कोई शारीरिक पीड़ा अथवा शरीर में किसी भी कारण से थकावट हो तो भी प्रसंग न करें।
4 -मानसिक थकावट या कोई चिंता भी दोनों में प्रसंग समय हो तो प्रसंग से परहेज करें।
5 -प्रसंग सदैव ऋतु स्नान के 5 वें दिन के बाद से ही करें।
6 -पति -पत्नी में से कोई भी यदि गरिष्ट आहार या अभक्ष्य भोजन (मांसाहारी ) किया हो तो प्रसंग न करें।
7 -प्रसंग समय दोनों के बीच हर्ष -उल्लास अति आवश्यक है।
8 -संतानोतपत्ति हेतु प्रसंग कक्ष धुप -दीप एवं सुगन्धित पुष्पों से सुवासित होना चाहिए।
9 -उत्तम संतान प्राप्ति हेतु दिन -तिथि -वार -ग्रह -नक्षत्र -समय को उत्तम देख कर ही प्रसंग होना चाहिए।
10 -पति-पत्नी के बीच एकादशी ,पंचमी ,अष्टमी ,पूर्णिमा ,आमावश्या ,चंद्र ग्रहण ,सूर्य ग्रहण ,धार्मिक पर्व ,के दिनों में प्रसंग बिल्कुल न करें।
11 -स्त्री जब गर्भ धारण कर ले तो जब तक संतान न पैदा हो जाय तब तक दोनों के बीच पुनः प्रसंग नहीं करे। गर्भ धारण करने से लेकर दस माह के बाद ही प्रसंग करें।
12 -गर्भिणी स्त्री कभी भी अपना मल-मूत्र रोके नहीं,तथा अधिक भोजन भी नहीं करे और अधिक भूखा भी नहीं रहे। गर्भिणी स्त्री के शरीर में दोषों के आघात से जो भी अंग या अंश पीड़ित होगा वही -वही अंग गर्भस्त संतान को भी पीड़ा देगी। इस लिए यदि स्त्री गर्भ धारण करने के बाद सबकुछ सामान्य ढंग से करे तो अच्छा है।
प्रसंग हेतु विशेष नियम ---
1 -यदि प्रसंग समय मोह के वशीभूत होकर पुरुष नीचे और स्त्री ऊपर हो तो पुत्र में स्त्री के लक्षण होते हैं।
2 -यदि प्रसंग समय पुरुष नीचे और स्त्री ऊपर हो किन्तु स्वयं की इच्छा से तो कन्या जो होगी वह पुरुष लक्षण वाली होगी।
3 -जिस प्रकार के आहार एवं चेष्टा तथा आचरण से दोनों के बीच प्रसंग होता है उसी प्रकार व उसी आचरण के अनुरूप संतान होती है।
4 -प्रसंग समय दोनों जितना अधिक हर्षित होगें संतान उतनी ही उत्तम होती है।
5 -पुरुष जब स्त्री में गर्भाधान संस्कार कर रहा हो तो उस समय स्त्री अपना मन जिस वस्तु या प्राणी एवं देव का ध्यान करे तो संतान उसी के समान होगी।
6 -प्रसंग समय पुरुष स्त्री के गर्भ में जब अपना शुक्र क्षय कर दे तो ठीक उसी समय स्त्री धीरे-धीरे गहरी साँस ऊपर को खीचें और स्वतः ही धीरे-धीरे साँस छोड़े। यह क्रिया कम से कम एक मिनट तक करना चाहिए।
7 -प्रसंग के बाद पति-पत्नी मूत्र त्याग अवश्य करें और मूत्र त्याग के बाद गुड़ खाकर सामन्य जल पीएं।
शुक्र और रज का बनना -----
1 -लोग जो आहार करतें हैं उससे जो रस बनता है तो एक माह नौ घड़ी में पुरुष में शुक्र और स्त्री में रज बनता है।
2 -यदि शुक्र और रज कम बन रहा हो तो ढूध ,आवँला या उड़द खाने से शुक्र एवं रज अधिक बनता है।
गर्भ धारण करने योग्य रज की पहचान -जब स्त्री का रज वस्त्र पर लगा हो और उसकी दाग वस्त्र धोने पर भी वस्त्र पर न रहे तब वह गर्भ धारण करने योग्य स्त्री हो जाती है।
नोट - बीज (शुक्र एवं रज )जब गर्भाशय में गिरता है तो एक माह तक बीज उसी रूप में रहता है तथा दूसरे माह से जब वात- पित्- कफ से पूरी तरह से पक जाता है तब गाढ़ा होता है।
गर्भ ठहरने का लक्षण -----------------
१-स्त्री की योनि से शुक्र और रक्त न बह रहा हो।
२-स्त्री की जंघा में पीड़ा होती हो एवं प्यास लगती हो और उसे ग्लानि हो।
३-स्त्री में भोग की इच्छा न होती हो , यदि भग फड़कने लगे ,मुँह से लार गिरने लगे या जी मिचलाने लगे एवं स्त्री के स्तनों का अग्र भाग सावंला हो तथा उल्टी होती हो।
४-स्त्री की योनि में भारीपन हो , उसके अंग- अंग टूटते हो या हर्ष और तंद्रा हो।
५-स्त्री से बीज बाहर न निकलता हो या ह्रदय प्रदेश में पीड़ा होती है आदि।
गर्भ में पुत्र के लक्षण ----------
1 -स्त्री को जब दूसरे माह से गर्भ गोल लगने लगे।
2 -जब स्त्री के गर्भ का दक्षिण नेत्र बड़ा लगने लगे
3 -स्त्री के दक्षिण स्तन से दूध आना शुरू हो। (दाएं स्तन )
4 -स्त्री के मुख का रंग दीप्तिमान हो।
5 -स्त्री जब स्वप्न में आम या पुष्प को देखती हो।
6 -गर्भस्थ स्त्री दाएं अंग से कार्य करे।
7 -स्त्री, पुरुष की चाह न रखती हो।
8 -गर्भस्थ स्त्री पुरुष में प्रेम रखती हो।
9 -स्त्री के दाएं कोंख में वृद्धि हो रही हो।
गर्भ में कन्या के लक्षण ---
1 -गर्भस्थ स्त्री की दूसरे माह से पेशी लम्बी मालूम पड़ती हो।
2 -स्त्री बाएं अंग से कार्य करती हो।
3 -स्त्री में प्रेम रखती हो।
4 -स्त्री, पुरुष की चाह रखती हो।
5 -गर्भस्थ स्त्री ,स्त्री में ही प्रेम रखती हो।
6 -स्त्री की बायीं कोंख वृद्धि कर रही हो।
7 -स्त्री का गर्भ गोल न हो।
8 -स्त्री के बाएं स्तन में प्रथम बार दूध का दर्शन हो।
9 -गर्भ में पुत्र होने के जो भी अन्य लक्षण हों ठीक उसके विपरीत यदि लक्षण हों।
गर्भ में यदि नपुंसक संतान हो तो उसका लक्षण ---------------
1 -गर्भस्थ स्त्री का आगे से पेट बड़ा मालूम पड़ता हो।
2 -गर्भ में यदि पिंड जैसा कुछ न मालूम पड़ रहा हो।
3 -गर्भस्थ स्त्री के दोनों कांखों में गर्भ ऊँचा मालूम पड़ रहा हो।
अब आगे यह ज्ञात होना आवश्यक है कि गर्भ ठहरने के बाद प्रत्येक माह में गर्भ का रूप क्या तथा कैसा होता है।
प्रथम माह में गर्भ का रूप -------------
1 - पहले माह में गर्भ का रूप पिंड के समान होता है और यह पिंड गतिरहित ,निष्चेस्ट ,मूर्क्षित होता है जिसे खेट कहा जाता है।
2 -दूसरे माह में जो पहले पिंड के रूप में था वह अब गोल और गाँठ के आकार का हो जाता है। पिंड की पेशी लम्बी गोल, ऊंची गाँठ के रूप में हो तो एवं पिंड जैसा तो पुत्र का लक्ष्ण है ,लेकिन यही पिंड पेशी जैसा हो तो कंन्या का रूप तथा यही पिंड यदि अर्बुद जैसा हो तो संतान नपुंसक होगी।
3 -गर्भ जब दो चरण को पार कर लेता है तो फिर तीसरे चरण में अथार्त तीसरे माह में गर्भ का दोनों हाथ-पाँव तथा सिर सहित पिंड बनकर शरीर के सूक्ष्म अवयव निकलने लगते हैं। सिर, अमाशय ,सम्पूर्ण इन्द्रिय एवं सब अंग एक साथ बनने लगते हैं। गर्भ की इन्द्रियाँ जिस समय बनती हैं उसी समय से गर्भ के चित्त में प्रत्येक ज्ञान का संबंध होने लगता है और इसी समय गर्भ का हिर्दय तथा माता का हिर्दय एक हो जाता है। इस माह में इसी कारण से जो गर्भ की इच्छा होती है वही माता की भी इच्छा होती है। यह क्रम धीरे-धीरे चलता रहता है और गर्भ चौथे माह में प्रवेश कर जाता है।
4 -जब चौथा माह गर्भ को लग जाता है तो इस माह में गर्भ स्थिर हो जाता है और इसी कारण से गर्भिणी का शरीर भारी होने लगता है क्यों कि चौथे माह में ही गर्भ का सम्पूर्ण अंग-उपांग स्पष्ट होने लगते हैं। यही कारण है कि इस माह में गर्भ को अनेक वस्तुओं की इच्क्षा होने लगती है। इसी माह में गर्भ की चेतना भी स्पष्ट होने लगती है। एक ही समय में माता के दो हिर्दय हो जाते हैं ,एक माता का और दुसरा गर्भ का ,इसलिए इस माह से स्त्री को जो भी आहार करने की इच्छा हो उसे अवश्य खिलाना चाहिए। चौथे माह में यदि गर्भिणी के आहार की इच्छा न पूरी की जाय तो इसका प्रभाव संतान पर इस ढंग से पड़ता है कि जन्म लेने के बाद संतान में विकृत्ति एवं आहार के प्रति अनेक विकार होने के कारण दुखदायी होता है।
विशेष ----यही माह संतान के आगे का भविष्य तय करने हेतु बहुत महत्त्वपूर्ण होता है ,क्यों कि इस माह में माता की इच्छा जो भी सात्विक होगी उसी के अनुरूप संतान धनवान एवं गुणवान तब होगी जब माता देव दर्शन या मंदिर दर्शन ,संत महापुरुष का दर्शन ,धार्मिक एवं न्यायप्रिय व्यक्ति का दर्शन करना चाहती हो। यदि इस माह में माता हिंसक जीव या मांस या कुछ भी तामसी आहार की इच्छा करेगी और उसका उपभोग करेगी तो संतान उसी के अनुरूप आचरण करने वाला होगा।
इस माह से अब अभिमन्यु जैसी संतान जन्म होने हेतु बहुत ही महत्त्वपूर्ण प्रक्रिया प्रारम्भ होगी जो निम्न होगी -------------
1 -इस माह से माता एवं पिता दोनों को सात्विक आचरण करते हुए तनाव मुक्त रहना होगा।
2 -चिंता ,क्रोध ,वासना ,से दूर रहकर तथा माता न अधिक आहार ले और न ही अधिक भूखी ही रहे।
3 -स्त्री सदैव प्रसन्नचित रहते हुए अपने ईष्ट देव का ध्यान करती रहे।
4 -पिता को चाहिए कि माता के नाभि के पास अपने मुँह से जो कुछ भी न्याय -अन्याय ,निति-अनीति ,धर्म-अधर्म ,हिंसा-अहिंसा के आचरण अनुरूप बोलेगा वह सब गर्भ में पल रही संतान सब कुछ सुनेगा और उसी के अनुरूप जन्म लेकर आचरण भी करेगा।
5 -जब पिता, माता के नाभि के पास बोल रहा हो तब माता को चाहिए कि तनाव मुक्त होकर सहज रूप से पीठ के बल लेटी हो।
6 -पिता इस समय जो कुछ भी तकनीकी ज्ञान ,ब्यवहारिक ज्ञान ,या जिस भी प्रकार का ज्ञान के विषय में माता के नाभि के पास बोलेगा वह सब कुछ संतान ग्रहण करेगी।
नोट -----------
इस माह में जो कुछ भी हम लोग करते हैं वही सब कुछ जीव अन्दर ही अन्दर करता रहता है। इस समय जीव देखने का कार्य ,सूँघने ,सुनने ,स्पर्श करना ,स्वाद चखना ,चलना आदि क्रिया भी करता रहता है।
गर्भिणी का पाँचवाँ माह ---
इस माह में गर्भ का मन प्रकट हो जाता है। गर्भ के अंदर मांस और रक्त का अधिक संचय होने लगता है। यही कारण है कि इस माह में माता कमजोर होने लगती है ,और इसलिए इस माह से माता को अधिक पौष्टिक भोजन भी करते रहना चाहिए।
छठवाँ माह ------------
गर्भ जब इस माह में पहुंचता है तो गर्भ की बुद्धि प्रकट होने लगती है। इस माह के गर्भ के बल और वर्ण का विकास होने के कारण माता में बल और वर्ण की भी हानि होने लगती है।
गर्भ का सातवाँ माह -------------
छः माह के क्रमिक विकास करते हुए गर्भ जब सतवें माह में हो जाता है तो गर्भ के समस्त अंग एवं उपांग पूर्ण स्पष्ट हो जाते हैं। गर्भ का मांस और रक्त एक साथ बढ़ने से इस माह में माता का भी मांस और रक्त घटने लगता है और इसी कारण से माता इस माह में दुर्बल हो जाती हैं।
गर्भ का आठवाँ माह -----------------------
यह माह भी इतना महत्वपूर्ण है कि माता का कई उतार -चढ़ाव से होकर समय व्यतीत होता है। इस माह में ओज माता और संतान में क्रम से संचार करने के कारण एवं रसवाहिनी नाड़ी द्धारा ओज माता से गर्भ में एवं गर्भ से माता में बार-बार आता जाता है इसलिए जब ओज माता में रहता है तो माता प्रसन्न रहती है तथा गर्भ ग्लानि में रहता है। बार-बार कुम्हलाना और मुदित होना माता और गर्भ का इस कारण से होता है कि ओज स्थिर नहीं रहता है। जब ओज गर्भ में रहता है तो माता ग्लानि में और गर्भ प्रसन्न रहता है। इस माह में माता को चाहिए कि थोड़ा - बहुत दान -धर्म करे।
गर्भ का नौवाँ माह --------------------
इस माह से लेकर 10 वें माह तक गर्भ पूर्ण विकसित होकर इस जगत में धरती की गोद में अपना पाँव पसार देता है।
गर्भ के अंग विकास में अनेक मत ------------
गर्भ के अंग विकास के बारे में धन्वन्तरि जी ,गौतम मुनि ,शौनक ऋषि ,कृतवीर्य मुनि ,मार्कण्डेय मुनि ,परासर मुनि आदि ने भिन्न-भिन्न मत दिए हैं। किसी ने कहा कि पहले मस्तिष्क होता है ,तो किसी ने कहा कि पहले हिर्दय होता है ,तो किसी ने कहा कि सम्पूर्ण शरीर आम के बौर जैसा होता है।
माता एवं पिता के अंश से भिन्न-भिन्न अंग का उतपन्न होना ------------------
1 -पिता के अंश से स्नायु ,शुक्र ,केश ,दाढ़ी ,मूँछ धमनी ,रोम एवं नख उतपन्न होता है।
2 -माता के अंश से प्लीहा ,आँत ,मांस ,रक्त ,मज्जा ,नाभि,हिर्दय ,मेदा उतपन्न होता है।
3 -शरीर का विकास ,शरीर का रंग ,शरीर का बल ,और शरीर की स्थिति यह सब रस के प्रभाव से होता है।
4 -आत्मा के निकट होने से सम्पूर्ण इन्द्रियाँ ,सुख-दुःख ,ज्ञान -आयु आत्मा से उतपन्न होता है।
5 -गर्भ की नाभि की नाड़ी के साथ स्त्री के रस की बहने वाली नाड़ी के साथ लगी रहने से जो कुछ गर्भवती स्त्री आहार लेती है वही सब कुछ गर्भ को भी मिलता है।
6 -गर्भ के शरीर की जो वृद्धि होती है वह गर्भ की नाभि के बीच से अविचल तेज के ज्योतिस्थान से सदैव पवन चलने के कारण होता है।
नोट ---------वायु और पकक्वाशय का योग होने से गर्भ में रहने वाला जीव निचे को वायु -मल- मूत्र नहीं छोड़ता है। झिल्ली (जरायु )के द्धारा मुख ढँका रहने से तथा कंठ कफ से घिरा रहने से एवं वायु से मार्ग रुकने से गर्भ में पल रहा जीव रोता नहीं है।
संतान की प्रकृति ------------
प्रसंग समय शुक्र और रज के संयोग होने पर शुक्र और रज में जो दोष अधिक होगा या गर्भिणी के आहार या चेष्टा में जो दोष होगा उसी के प्रकृति के अनुसार संतान होती है।
संतान के जन्म लेने के समय का लक्षण ------------------------
1 -जब स्त्री के संतान जन्म लेने का समय होता है तो गर्भ धारण स्त्री की कोंख ढीली हो जाती है।
2 -स्त्री के जांघों में पीड़ा होने लगती है ,पेड़ू में भी दर्द हो जाया करता है।
3 -जब स्त्री के कमर में पीड़ा होने लगे तथा पीठ में भी पीड़ा होने लगे तो एवं बार-बार मल-मूत्र करने की प्रवृत्ति हो तो समझ जाना चाहिए कि अब संतान तुरंत जन्म लेगी।
नोट -------------
संतान जन्म लेने के तीन या चार रात के अंदर ही माता के स्तन में दूध आ जाता है। कभी-कभी संतान पर अधिक प्रेम होने से भी दूध जल्दी स्तन में आ जाता है।
यदि माता का दूध न बढ़े तो कलमी चावल (कश्मीर में मिलने वाला चावल )को दूध में पीस कर पीने से दूध बढ़ता है।
माता के मिथ्या आहार एवं विहार से माता के वात-पित्त- कफ दूध को जब दूषित करते हैं तो उस दूध के पीने से संतान को अनेक रोग होते हैं।
माता के अशुद्ध दूध का लक्षण ---------------
1 -संतान जन्म होने के बाद माता का दूध यदि पानी में डालने से तैरने लगे और स्वाद में कसैला लगे तो यह दूध वात से दूषित होता है।
2 -माता का दूध यदि पानी में डालने से पीली-पीली धारी हो जाय और स्वाद में खट्टा एवं चरपरा लगे तो यह दूध पित्त से दूषित होता है।
3 -यदि माता का दूध पानी में डालने से डूब जाय एवं लिबलिबा सा हो जाय तो यह दूध कफ से दूषित होता है।
माता का दूध शुद्ध कैसे करें -------------
यदि माता का दूध शुद्ध नही है तो गिलोय (गुरुचि ),कुटकी ,सोंठ का काढ़ा और मूंग का जूस पीना चाहिए।
माता के शुद्ध दूध की पहचान -------------
माता का दूध पानी में डालने से मिल जाय और किसी रंग का नहीं हो ,तार नहीं टूटे ,सफेद एवं पतला हो ,हल्का पीला और शीतल हो तो वही दूध शुद्ध है।
बच्चों को माता दूध कैसे पिलाये -------------
माता को चाहिए कि स्तन को धुलकर एवं बैठ कर दाएं स्तन से थोड़ा दूध निकाल कर उत्तर दिशा मुख करके प्रथम स्तनपान कराएं तथा इसी प्रकार से आगे भी दूध पिलाती रहें।
पति -पत्नी के प्रसंग में सावधानी एवं नियम -----------
1 -भोजन करने के कम से कम चार घंटे बाद ही पति -पत्नी प्रसंग करें।
2 -यदि दोनों में से किसी को भी प्रसंग समय पेट में गैस या खाने -पीने से पेट भारी हो तो प्रसंग न करें।
3 -पति -पत्नी में से किसी को यदि सर्दी -जुकाम -बुखार या कोई शारीरिक पीड़ा अथवा शरीर में किसी भी कारण से थकावट हो तो भी प्रसंग न करें।
4 -मानसिक थकावट या कोई चिंता भी दोनों में प्रसंग समय हो तो प्रसंग से परहेज करें।
5 -प्रसंग सदैव ऋतु स्नान के 5 वें दिन के बाद से ही करें।
6 -पति -पत्नी में से कोई भी यदि गरिष्ट आहार या अभक्ष्य भोजन (मांसाहारी ) किया हो तो प्रसंग न करें।
7 -प्रसंग समय दोनों के बीच हर्ष -उल्लास अति आवश्यक है।
8 -संतानोतपत्ति हेतु प्रसंग कक्ष धुप -दीप एवं सुगन्धित पुष्पों से सुवासित होना चाहिए।
9 -उत्तम संतान प्राप्ति हेतु दिन -तिथि -वार -ग्रह -नक्षत्र -समय को उत्तम देख कर ही प्रसंग होना चाहिए।
10 -पति-पत्नी के बीच एकादशी ,पंचमी ,अष्टमी ,पूर्णिमा ,आमावश्या ,चंद्र ग्रहण ,सूर्य ग्रहण ,धार्मिक पर्व ,के दिनों में प्रसंग बिल्कुल न करें।
11 -स्त्री जब गर्भ धारण कर ले तो जब तक संतान न पैदा हो जाय तब तक दोनों के बीच पुनः प्रसंग नहीं करे। गर्भ धारण करने से लेकर दस माह के बाद ही प्रसंग करें।
12 -गर्भिणी स्त्री कभी भी अपना मल-मूत्र रोके नहीं,तथा अधिक भोजन भी नहीं करे और अधिक भूखा भी नहीं रहे। गर्भिणी स्त्री के शरीर में दोषों के आघात से जो भी अंग या अंश पीड़ित होगा वही -वही अंग गर्भस्त संतान को भी पीड़ा देगी। इस लिए यदि स्त्री गर्भ धारण करने के बाद सबकुछ सामान्य ढंग से करे तो अच्छा है।
प्रसंग हेतु विशेष नियम ---
1 -यदि प्रसंग समय मोह के वशीभूत होकर पुरुष नीचे और स्त्री ऊपर हो तो पुत्र में स्त्री के लक्षण होते हैं।
2 -यदि प्रसंग समय पुरुष नीचे और स्त्री ऊपर हो किन्तु स्वयं की इच्छा से तो कन्या जो होगी वह पुरुष लक्षण वाली होगी।
3 -जिस प्रकार के आहार एवं चेष्टा तथा आचरण से दोनों के बीच प्रसंग होता है उसी प्रकार व उसी आचरण के अनुरूप संतान होती है।
4 -प्रसंग समय दोनों जितना अधिक हर्षित होगें संतान उतनी ही उत्तम होती है।
5 -पुरुष जब स्त्री में गर्भाधान संस्कार कर रहा हो तो उस समय स्त्री अपना मन जिस वस्तु या प्राणी एवं देव का ध्यान करे तो संतान उसी के समान होगी।
6 -प्रसंग समय पुरुष स्त्री के गर्भ में जब अपना शुक्र क्षय कर दे तो ठीक उसी समय स्त्री धीरे-धीरे गहरी साँस ऊपर को खीचें और स्वतः ही धीरे-धीरे साँस छोड़े। यह क्रिया कम से कम एक मिनट तक करना चाहिए।
7 -प्रसंग के बाद पति-पत्नी मूत्र त्याग अवश्य करें और मूत्र त्याग के बाद गुड़ खाकर सामन्य जल पीएं।
शुक्र और रज का बनना -----
1 -लोग जो आहार करतें हैं उससे जो रस बनता है तो एक माह नौ घड़ी में पुरुष में शुक्र और स्त्री में रज बनता है।
2 -यदि शुक्र और रज कम बन रहा हो तो ढूध ,आवँला या उड़द खाने से शुक्र एवं रज अधिक बनता है।
गर्भ धारण करने योग्य रज की पहचान -जब स्त्री का रज वस्त्र पर लगा हो और उसकी दाग वस्त्र धोने पर भी वस्त्र पर न रहे तब वह गर्भ धारण करने योग्य स्त्री हो जाती है।
नोट - बीज (शुक्र एवं रज )जब गर्भाशय में गिरता है तो एक माह तक बीज उसी रूप में रहता है तथा दूसरे माह से जब वात- पित्- कफ से पूरी तरह से पक जाता है तब गाढ़ा होता है।
गर्भ ठहरने का लक्षण -----------------
१-स्त्री की योनि से शुक्र और रक्त न बह रहा हो।
२-स्त्री की जंघा में पीड़ा होती हो एवं प्यास लगती हो और उसे ग्लानि हो।
३-स्त्री में भोग की इच्छा न होती हो , यदि भग फड़कने लगे ,मुँह से लार गिरने लगे या जी मिचलाने लगे एवं स्त्री के स्तनों का अग्र भाग सावंला हो तथा उल्टी होती हो।
४-स्त्री की योनि में भारीपन हो , उसके अंग- अंग टूटते हो या हर्ष और तंद्रा हो।
५-स्त्री से बीज बाहर न निकलता हो या ह्रदय प्रदेश में पीड़ा होती है आदि।
गर्भ में पुत्र के लक्षण ----------
1 -स्त्री को जब दूसरे माह से गर्भ गोल लगने लगे।
2 -जब स्त्री के गर्भ का दक्षिण नेत्र बड़ा लगने लगे
3 -स्त्री के दक्षिण स्तन से दूध आना शुरू हो। (दाएं स्तन )
4 -स्त्री के मुख का रंग दीप्तिमान हो।
5 -स्त्री जब स्वप्न में आम या पुष्प को देखती हो।
6 -गर्भस्थ स्त्री दाएं अंग से कार्य करे।
7 -स्त्री, पुरुष की चाह न रखती हो।
8 -गर्भस्थ स्त्री पुरुष में प्रेम रखती हो।
9 -स्त्री के दाएं कोंख में वृद्धि हो रही हो।
गर्भ में कन्या के लक्षण ---
1 -गर्भस्थ स्त्री की दूसरे माह से पेशी लम्बी मालूम पड़ती हो।
2 -स्त्री बाएं अंग से कार्य करती हो।
3 -स्त्री में प्रेम रखती हो।
4 -स्त्री, पुरुष की चाह रखती हो।
5 -गर्भस्थ स्त्री ,स्त्री में ही प्रेम रखती हो।
6 -स्त्री की बायीं कोंख वृद्धि कर रही हो।
7 -स्त्री का गर्भ गोल न हो।
8 -स्त्री के बाएं स्तन में प्रथम बार दूध का दर्शन हो।
9 -गर्भ में पुत्र होने के जो भी अन्य लक्षण हों ठीक उसके विपरीत यदि लक्षण हों।
गर्भ में यदि नपुंसक संतान हो तो उसका लक्षण ---------------
1 -गर्भस्थ स्त्री का आगे से पेट बड़ा मालूम पड़ता हो।
2 -गर्भ में यदि पिंड जैसा कुछ न मालूम पड़ रहा हो।
3 -गर्भस्थ स्त्री के दोनों कांखों में गर्भ ऊँचा मालूम पड़ रहा हो।
अब आगे यह ज्ञात होना आवश्यक है कि गर्भ ठहरने के बाद प्रत्येक माह में गर्भ का रूप क्या तथा कैसा होता है।
प्रथम माह में गर्भ का रूप -------------
1 - पहले माह में गर्भ का रूप पिंड के समान होता है और यह पिंड गतिरहित ,निष्चेस्ट ,मूर्क्षित होता है जिसे खेट कहा जाता है।
2 -दूसरे माह में जो पहले पिंड के रूप में था वह अब गोल और गाँठ के आकार का हो जाता है। पिंड की पेशी लम्बी गोल, ऊंची गाँठ के रूप में हो तो एवं पिंड जैसा तो पुत्र का लक्ष्ण है ,लेकिन यही पिंड पेशी जैसा हो तो कंन्या का रूप तथा यही पिंड यदि अर्बुद जैसा हो तो संतान नपुंसक होगी।
3 -गर्भ जब दो चरण को पार कर लेता है तो फिर तीसरे चरण में अथार्त तीसरे माह में गर्भ का दोनों हाथ-पाँव तथा सिर सहित पिंड बनकर शरीर के सूक्ष्म अवयव निकलने लगते हैं। सिर, अमाशय ,सम्पूर्ण इन्द्रिय एवं सब अंग एक साथ बनने लगते हैं। गर्भ की इन्द्रियाँ जिस समय बनती हैं उसी समय से गर्भ के चित्त में प्रत्येक ज्ञान का संबंध होने लगता है और इसी समय गर्भ का हिर्दय तथा माता का हिर्दय एक हो जाता है। इस माह में इसी कारण से जो गर्भ की इच्छा होती है वही माता की भी इच्छा होती है। यह क्रम धीरे-धीरे चलता रहता है और गर्भ चौथे माह में प्रवेश कर जाता है।
4 -जब चौथा माह गर्भ को लग जाता है तो इस माह में गर्भ स्थिर हो जाता है और इसी कारण से गर्भिणी का शरीर भारी होने लगता है क्यों कि चौथे माह में ही गर्भ का सम्पूर्ण अंग-उपांग स्पष्ट होने लगते हैं। यही कारण है कि इस माह में गर्भ को अनेक वस्तुओं की इच्क्षा होने लगती है। इसी माह में गर्भ की चेतना भी स्पष्ट होने लगती है। एक ही समय में माता के दो हिर्दय हो जाते हैं ,एक माता का और दुसरा गर्भ का ,इसलिए इस माह से स्त्री को जो भी आहार करने की इच्छा हो उसे अवश्य खिलाना चाहिए। चौथे माह में यदि गर्भिणी के आहार की इच्छा न पूरी की जाय तो इसका प्रभाव संतान पर इस ढंग से पड़ता है कि जन्म लेने के बाद संतान में विकृत्ति एवं आहार के प्रति अनेक विकार होने के कारण दुखदायी होता है।
विशेष ----यही माह संतान के आगे का भविष्य तय करने हेतु बहुत महत्त्वपूर्ण होता है ,क्यों कि इस माह में माता की इच्छा जो भी सात्विक होगी उसी के अनुरूप संतान धनवान एवं गुणवान तब होगी जब माता देव दर्शन या मंदिर दर्शन ,संत महापुरुष का दर्शन ,धार्मिक एवं न्यायप्रिय व्यक्ति का दर्शन करना चाहती हो। यदि इस माह में माता हिंसक जीव या मांस या कुछ भी तामसी आहार की इच्छा करेगी और उसका उपभोग करेगी तो संतान उसी के अनुरूप आचरण करने वाला होगा।
इस माह से अब अभिमन्यु जैसी संतान जन्म होने हेतु बहुत ही महत्त्वपूर्ण प्रक्रिया प्रारम्भ होगी जो निम्न होगी -------------
1 -इस माह से माता एवं पिता दोनों को सात्विक आचरण करते हुए तनाव मुक्त रहना होगा।
2 -चिंता ,क्रोध ,वासना ,से दूर रहकर तथा माता न अधिक आहार ले और न ही अधिक भूखी ही रहे।
3 -स्त्री सदैव प्रसन्नचित रहते हुए अपने ईष्ट देव का ध्यान करती रहे।
4 -पिता को चाहिए कि माता के नाभि के पास अपने मुँह से जो कुछ भी न्याय -अन्याय ,निति-अनीति ,धर्म-अधर्म ,हिंसा-अहिंसा के आचरण अनुरूप बोलेगा वह सब गर्भ में पल रही संतान सब कुछ सुनेगा और उसी के अनुरूप जन्म लेकर आचरण भी करेगा।
5 -जब पिता, माता के नाभि के पास बोल रहा हो तब माता को चाहिए कि तनाव मुक्त होकर सहज रूप से पीठ के बल लेटी हो।
6 -पिता इस समय जो कुछ भी तकनीकी ज्ञान ,ब्यवहारिक ज्ञान ,या जिस भी प्रकार का ज्ञान के विषय में माता के नाभि के पास बोलेगा वह सब कुछ संतान ग्रहण करेगी।
नोट -----------
इस माह में जो कुछ भी हम लोग करते हैं वही सब कुछ जीव अन्दर ही अन्दर करता रहता है। इस समय जीव देखने का कार्य ,सूँघने ,सुनने ,स्पर्श करना ,स्वाद चखना ,चलना आदि क्रिया भी करता रहता है।
गर्भिणी का पाँचवाँ माह ---
इस माह में गर्भ का मन प्रकट हो जाता है। गर्भ के अंदर मांस और रक्त का अधिक संचय होने लगता है। यही कारण है कि इस माह में माता कमजोर होने लगती है ,और इसलिए इस माह से माता को अधिक पौष्टिक भोजन भी करते रहना चाहिए।
छठवाँ माह ------------
गर्भ जब इस माह में पहुंचता है तो गर्भ की बुद्धि प्रकट होने लगती है। इस माह के गर्भ के बल और वर्ण का विकास होने के कारण माता में बल और वर्ण की भी हानि होने लगती है।
गर्भ का सातवाँ माह -------------
छः माह के क्रमिक विकास करते हुए गर्भ जब सतवें माह में हो जाता है तो गर्भ के समस्त अंग एवं उपांग पूर्ण स्पष्ट हो जाते हैं। गर्भ का मांस और रक्त एक साथ बढ़ने से इस माह में माता का भी मांस और रक्त घटने लगता है और इसी कारण से माता इस माह में दुर्बल हो जाती हैं।
गर्भ का आठवाँ माह -----------------------
यह माह भी इतना महत्वपूर्ण है कि माता का कई उतार -चढ़ाव से होकर समय व्यतीत होता है। इस माह में ओज माता और संतान में क्रम से संचार करने के कारण एवं रसवाहिनी नाड़ी द्धारा ओज माता से गर्भ में एवं गर्भ से माता में बार-बार आता जाता है इसलिए जब ओज माता में रहता है तो माता प्रसन्न रहती है तथा गर्भ ग्लानि में रहता है। बार-बार कुम्हलाना और मुदित होना माता और गर्भ का इस कारण से होता है कि ओज स्थिर नहीं रहता है। जब ओज गर्भ में रहता है तो माता ग्लानि में और गर्भ प्रसन्न रहता है। इस माह में माता को चाहिए कि थोड़ा - बहुत दान -धर्म करे।
गर्भ का नौवाँ माह --------------------
इस माह से लेकर 10 वें माह तक गर्भ पूर्ण विकसित होकर इस जगत में धरती की गोद में अपना पाँव पसार देता है।
गर्भ के अंग विकास में अनेक मत ------------
गर्भ के अंग विकास के बारे में धन्वन्तरि जी ,गौतम मुनि ,शौनक ऋषि ,कृतवीर्य मुनि ,मार्कण्डेय मुनि ,परासर मुनि आदि ने भिन्न-भिन्न मत दिए हैं। किसी ने कहा कि पहले मस्तिष्क होता है ,तो किसी ने कहा कि पहले हिर्दय होता है ,तो किसी ने कहा कि सम्पूर्ण शरीर आम के बौर जैसा होता है।
माता एवं पिता के अंश से भिन्न-भिन्न अंग का उतपन्न होना ------------------
1 -पिता के अंश से स्नायु ,शुक्र ,केश ,दाढ़ी ,मूँछ धमनी ,रोम एवं नख उतपन्न होता है।
2 -माता के अंश से प्लीहा ,आँत ,मांस ,रक्त ,मज्जा ,नाभि,हिर्दय ,मेदा उतपन्न होता है।
3 -शरीर का विकास ,शरीर का रंग ,शरीर का बल ,और शरीर की स्थिति यह सब रस के प्रभाव से होता है।
4 -आत्मा के निकट होने से सम्पूर्ण इन्द्रियाँ ,सुख-दुःख ,ज्ञान -आयु आत्मा से उतपन्न होता है।
5 -गर्भ की नाभि की नाड़ी के साथ स्त्री के रस की बहने वाली नाड़ी के साथ लगी रहने से जो कुछ गर्भवती स्त्री आहार लेती है वही सब कुछ गर्भ को भी मिलता है।
6 -गर्भ के शरीर की जो वृद्धि होती है वह गर्भ की नाभि के बीच से अविचल तेज के ज्योतिस्थान से सदैव पवन चलने के कारण होता है।
नोट ---------वायु और पकक्वाशय का योग होने से गर्भ में रहने वाला जीव निचे को वायु -मल- मूत्र नहीं छोड़ता है। झिल्ली (जरायु )के द्धारा मुख ढँका रहने से तथा कंठ कफ से घिरा रहने से एवं वायु से मार्ग रुकने से गर्भ में पल रहा जीव रोता नहीं है।
संतान की प्रकृति ------------
प्रसंग समय शुक्र और रज के संयोग होने पर शुक्र और रज में जो दोष अधिक होगा या गर्भिणी के आहार या चेष्टा में जो दोष होगा उसी के प्रकृति के अनुसार संतान होती है।
संतान के जन्म लेने के समय का लक्षण ------------------------
1 -जब स्त्री के संतान जन्म लेने का समय होता है तो गर्भ धारण स्त्री की कोंख ढीली हो जाती है।
2 -स्त्री के जांघों में पीड़ा होने लगती है ,पेड़ू में भी दर्द हो जाया करता है।
3 -जब स्त्री के कमर में पीड़ा होने लगे तथा पीठ में भी पीड़ा होने लगे तो एवं बार-बार मल-मूत्र करने की प्रवृत्ति हो तो समझ जाना चाहिए कि अब संतान तुरंत जन्म लेगी।
नोट -------------
संतान जन्म लेने के तीन या चार रात के अंदर ही माता के स्तन में दूध आ जाता है। कभी-कभी संतान पर अधिक प्रेम होने से भी दूध जल्दी स्तन में आ जाता है।
यदि माता का दूध न बढ़े तो कलमी चावल (कश्मीर में मिलने वाला चावल )को दूध में पीस कर पीने से दूध बढ़ता है।
माता के मिथ्या आहार एवं विहार से माता के वात-पित्त- कफ दूध को जब दूषित करते हैं तो उस दूध के पीने से संतान को अनेक रोग होते हैं।
माता के अशुद्ध दूध का लक्षण ---------------
1 -संतान जन्म होने के बाद माता का दूध यदि पानी में डालने से तैरने लगे और स्वाद में कसैला लगे तो यह दूध वात से दूषित होता है।
2 -माता का दूध यदि पानी में डालने से पीली-पीली धारी हो जाय और स्वाद में खट्टा एवं चरपरा लगे तो यह दूध पित्त से दूषित होता है।
3 -यदि माता का दूध पानी में डालने से डूब जाय एवं लिबलिबा सा हो जाय तो यह दूध कफ से दूषित होता है।
माता का दूध शुद्ध कैसे करें -------------
यदि माता का दूध शुद्ध नही है तो गिलोय (गुरुचि ),कुटकी ,सोंठ का काढ़ा और मूंग का जूस पीना चाहिए।
माता के शुद्ध दूध की पहचान -------------
माता का दूध पानी में डालने से मिल जाय और किसी रंग का नहीं हो ,तार नहीं टूटे ,सफेद एवं पतला हो ,हल्का पीला और शीतल हो तो वही दूध शुद्ध है।
बच्चों को माता दूध कैसे पिलाये -------------
माता को चाहिए कि स्तन को धुलकर एवं बैठ कर दाएं स्तन से थोड़ा दूध निकाल कर उत्तर दिशा मुख करके प्रथम स्तनपान कराएं तथा इसी प्रकार से आगे भी दूध पिलाती रहें।
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